
Back to Layout
Language:
Artist : Sumakshi Singh
Title: Spectres of Belonging (1 & 2)
Medium: Thread work
Size: 1) 99 inches x 32 inches (with acrylic box)
2) 48 inches x 25 inches (with acrylic box)
Year: 2023
Courtesy: Exhibit 320, Delhi
Location: Sculpture Gallery, CSMVS Museum – Mumbai.
शीर्षक: स्पेटर्स ऑफ बिलॉन्गिंग – (1 & 2)
माध्यम: धागे का कार्य
आकार: 1) 99 इंच x 32 इंच (ऐक्रेलिक बक्से के साथ)
2) 48 इंच x 25 इंच (ऐक्रेलिक बक्से के साथ)
वर्ष: 2023
साभार: एक्ज़िबिट 320, दिल्ली।
जगह: मूर्तिकला गैलरी, सीएसएमवीएस संग्रहालय – मुंबई
Museums hold together our histories. Fragments of art and culture are brought together, acquired or donated and contextualised in this tertiary space. The architecture and context are conjectural to individual objects and even more alien when grouped together. The existence of their original spatiality lurks around like a subtle memory, which Sumakshi weaves together in her works. Sumakshi sees these lost spaces in her mind, and gathers their traces in her architectural thread drawings.
Indian aesthetics talks about inter-connectivity of all art forms, which culminates in temples of all religions. Sculptures are an integral part of architecture, and have rhythm and balance of dance and continuity and repetition of musical compositions. Sumakshi finding of the subconscious traces of architectural forms in museum sculptures seems natural as these are uprooted from their aesthetical ecosystem. With delicate dexterity Sumakshi weaves the lost environment of these sculptures, placing the columns, doorways with every detail. These works seem like the skeletal fossils of flowers or leaves we preserve in diary pages, long forgotten associations which are beautiful and painful, having eternal existence yet lost in time.
Text contribution: Snehal Tambulwadikar Khedkar
Installation Photo Credits: Jagan Khursule
हमारे इतिहासों को एकत्र करने और सहेज कर रखने का महत्वपूर्ण कार्य संग्रहलायों द्वारा किया जाता है। इस तृतीयक स्थान यानी संग्रहालय में कला और संस्कृति के खण्ड या टुकड़े एकत्र करके लाये जाते हैं जगह- जगह से बटोरके, या किसी के भेट स्वरुप , तत्पश्चात उनका अधिग्रहण किया जाता है। इन संग्रहालयों में महत्वपूर्ण कलाओं और इतिहास के खण्डों को संदर्भित किया जाता है। वास्तुकला और सन्दर्भ विभिन्न वस्तुओं के लिए कल्पनात्मक या अनुमानिक होते हैं और यह तब अधिक संदर्भहीन प्रतीत होते हैं जब इन्हें समूहबद्ध कर दिया जाता है। इन वस्तुओं की मूल स्थानिकता का अस्तित्व सूक्ष्म स्मृतियों की तरह उपस्थित रहता है जिसे सुमाक्षी अपनी कला में एकत्र कर बुन लेती हैं। सुमाक्षी इन खो गए स्थानों को अपने मस्तिष्क में देखती हैं और उन निशानियों को वास्तुशिल्पीय बुनावट लिए अपने रेखाचित्रों में मिला देती है।
भारतीय सौंदर्यशास्त्र सारी कलाओं के आपसी बंधन की बात करता है। में झाळीं पाता है और जिसका आख़िरी सिरा सभी धर्मों के भारतीय देवालयों में झाळीं पाता है। ऐसा माना गया है कि वास्तुकला में मूर्तिकला एक अभिन्न घटक होती है जो नृत्य की ताल और सन्तुलन, संगीत की धुन और संरचना की निरंतरता और आवृत्ति पर केन्द्रित होती है। अपनी अवलोकन क्षमता के अनुसार सुमाक्षी का यह मानना है कि संग्रहलायों में रखी गई मूर्तियों में भी वास्तुशिल्प के अभिन्न चिह्न पाए जाते हैं और यह बहुत ही स्वाभाविक है क्योंकि ये मूर्तियाँ अपनी सौंदर्यिक पारिस्थितिकी से विलग होकर यहाँ उपस्थित हैं। सुमाक्षी ने अपनी कोमल लेकिन दक्ष कलात्मक अनुभूति के माध्यम से इन मूर्तियों के खोए हुए परिवेश को फिर से जीवंत किया है। उन्होंने हर सूक्ष्म विस्तार और विवरण के साथ स्तंभों, प्रवेशमार्गों को अपनी कलाकृतियों में स्थापित किया है। ये कार्य उन फूलों और पत्तों के कंकाल जीवाश्मों के समान होते हैं जिन्हें हम अपनी डायरी के पृष्ठों में संचित करके रखते हैं, जिनका सम्बन्ध कभी खूबसूरत या दर्दनाक स्मृतियों से रहा हो और समय के साथ खो जाने के बावजूद भी जिनका अस्तित्व शाश्वत हो।
अनुवादकः पूनम अरोडा
इंस्टालेशन फोटो क्रेडिट: जगन खुरसूले